शास्त्रों में कहा गया है —
“जयेत् लोभं संतोषेन्।”
अर्थात् — लोभ पर विजय संतोष के द्वारा ही संभव है।
यह सूत्र हमें याद दिलाता है कि जब तक मनुष्य को ‘और अधिक पाने की चाह’ बनी रहती है, तब तक उसे कभी शांति नहीं मिलती।
लोभ एक ऐसी ज्वाला है जो जितना ईंधन पाती है, उतनी बढ़ती जाती है।
🔥 लोभ क्या है?
लोभ का अर्थ है — अपनी आवश्यकता से अधिक पाने की तीव्र इच्छा।
यह केवल धन का नहीं, बल्कि मान-सम्मान, पद, सुख, या संबंधों का भी हो सकता है।
भगवद्गीता में कहा गया है —
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः — कामः क्रोधस्तथा लोभः।”
(गीता 16.21)
यानी — काम, क्रोध और लोभ — ये तीन नरक के द्वार हैं।
🌿 लोभ के परिणाम
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अशांति: लालच कभी संतुष्टि नहीं देता, बल्कि और अधिक असंतोष बढ़ाता है।
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भय: जितना अधिक संग्रह करेंगे, उतना खोने का डर रहेगा।
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विवेकहीनता: लोभ विवेक को ढँक देता है, जिससे सही निर्णय की क्षमता घट जाती है।
🌸 लोभ को कैसे जीता जाए?
1. संतोष का अभ्यास करें
“संतोषं परमं सुखम्।”
संतोष का अर्थ है — जो मिला है, उसमें आनंद देखना।
यह निष्क्रियता नहीं, बल्कि कृतज्ञता का भाव है।
जब मन “धन्य हूँ” कहने लगे, तब लोभ अपने आप मिट जाता है।
2. दान और सेवा
दान लोभ का प्रतिकार है।
जब हम देने की आदत डालते हैं, तब मन धीरे-धीरे “लेने” की प्रवृत्ति से मुक्त होता है।
छोटे-छोटे दान भी मन को विशाल बना देते हैं।
3. वैराग्य और विवेक
वैराग्य का अर्थ है — यह समझना कि यह संसार अस्थायी है।
जो चीज़ आज हमारी है, कल किसी और की होगी।
विवेक से लोभ की पकड़ ढीली पड़ती है।
4. संग का प्रभाव
लोभी लोगों का संग लोभ बढ़ाता है; संतोषी लोगों का संग शांति देता है।
सत्संग इस यात्रा में सबसे बड़ा सहायक है।
5. ध्यान और प्रार्थना
हर दिन कुछ समय शांत बैठें, और अपने भीतर के लोभ को देखें।
भगवान से प्रार्थना करें —
“हे प्रभो, मुझे संतोष की बुद्धि दो, ताकि मैं अपने हिस्से के सुख में आनंद पाऊँ।”
🌼 समापन विचार
हाँ — लोभ को केवल संतोष से ही जीता जा सकता है।
ना क्रोध से, ना तप से, ना धन से — केवल उस मन से जो आभार और तृप्ति से भरा हो।
“जो संतोषी है, वही वास्तव में समृद्ध है।”