🌿 प्रस्तावना
भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन का विज्ञान है।
अध्याय 2, श्लोक 62 में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि मनुष्य के चिंतन से ही उसके कर्म और चरित्र का निर्माण होता है।
यदि मन भोगों का चिंतन करता है तो पतन की ओर जाता है,
और यदि मन ईश्वर का चिंतन करता है तो उत्थान की ओर बढ़ता है।
📜 श्लोक (Bhagavad Gita 2.62)
ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते॥
अर्थ:
जो व्यक्ति विषयों का (भोगों का) निरंतर चिंतन करता है,
उसके भीतर उनसे आसक्ति उत्पन्न होती है;
आसक्ति से कामना, और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।
📖 स्रोत: श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 62
🧠 श्लोक का सार
यह श्लोक हमें बताता है कि —
“मन जिस विषय का बार-बार चिंतन करता है, उसी से वह जुड़ जाता है।”
यही जुड़ाव (संग) आगे चलकर कामना, क्रोध, मोह, और दुःख का कारण बनता है।
अतः मन को रोकना नहीं, बल्कि सही दिशा में लगाना ही गीता का संदेश है।
💡 मन की आदत और उसकी दिशा
मन की प्रकृति चंचल है।
वह सदा किसी न किसी विषय पर विचार करता रहता है।
अगर यह विषय इन्द्रिय भोग, लोभ या वासना से जुड़ा है —
तो मन धीरे-धीरे बंधन में पड़ता है।
लेकिन वही मन यदि ईश्वर, सत्संग, या सद्ग्रंथों के चिंतन में लगे,
तो वही प्रवृत्ति साधना और शांति का रूप ले लेती है।
“मन वही करे जो पहले करता था —
बस विषय बदल जाए, दिशा दिव्य हो जाए।”
🪷 सकारात्मक प्रयोग – ईश्वर चिंतन
भगवान श्रीकृष्ण ने यह नहीं कहा कि सोचना बंद करो,
बल्कि कहा — सोचो, परंतु सही दिशा में सोचो।
यदि विषय-चिंतन से आसक्ति बढ़ती है,
तो ईश्वर-चिंतन से भक्ति और शुद्धि बढ़ती है।
👉 उदाहरण:
-
विषय-चिंतन → आसक्ति → दुःख
-
ईश्वर-चिंतन → भक्ति → आनंद
🕊️ अगला श्लोक (2.63) का संदेश
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति-विभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥
अर्थ:
क्रोध से मोह, मोह से स्मृति-भ्रंश, और स्मृति-भ्रंश से विवेक का नाश होता है।
परंतु जब मन ईश्वर-चिंतन में स्थिर होता है,
तब विवेक बढ़ता है और आत्मा प्रसन्न रहती है।
🌼 निष्कर्ष
यदि मन को नियंत्रित करना कठिन है,
तो उसे ईश्वर-चिंतन, प्रार्थना, भजन, या सत्संग में लगाइए।
तब यह श्लोक न केवल सैद्धांतिक रहेगा बल्कि जीवित अनुभव बन जाएगा।
✨ मन को विषयों से हटाना नहीं —
मन को ईश्वर में रमाना ही गीता की वास्तविक साधना है। ✨
📚 विश्वसनीय संदर्भ (Citations)
-
[ISKCON Commentary – Srila Prabhupada](https://vedabase.io/en/library/bg/2/62/ purport/)

