डर और भय से मुक्ति के उपाय
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥1॥
यथाहश्च रात्रीं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥2॥
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥3॥
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥4॥
यथा सत्यं चानृतं न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥5॥
यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥6॥
(अथर्ववेद, काण्ड 2, सूक्त 15)
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः अर्थ
(1) जिस प्रकार आकाश और पृथ्वी को कोई भय नहीं होता और न ही उनका अंत होता है, उसी तरह हे मेरे प्राण, तुम भी निडर रहो।
(2) जिस प्रकार दिन और रात को कोई डर नहीं होता और उनका अंत नहीं होता, उसी तरह हे मेरे प्राण, तुम भी भय से मुक्त रहो।
(3) जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा को कोई डर नहीं सताता और उनका विनाश नहीं होता, उसी प्रकार हे मेरे प्राण, तुम भी भय का अनुभव न करो।
(4) जैसे ब्रह्म और उसकी शक्ति को किसी भी प्रकार का भय नहीं होता और वे अविनाशी हैं, वैसे ही हे मेरे प्राण, तुम भी भयमुक्त रहो।
(5) जैसे सत्य और असत्य किसी से डरते नहीं हैं और उनका कोई अंत नहीं होता, वैसे ही हे मेरे प्राण, तुम भी निडर रहो।
(6) जिस प्रकार भूतकाल और भविष्यत्काल को किसी का भय नहीं होता और उनका विनाश नहीं होता, उसी प्रकार हे मेरे प्राण, तुम भी डर से मुक्त रहो।